अहंकार
वेश्या ने भिक्षु को रोका. बोली, "मेरे घर रुक जाओ वर्षाकाल में।"
भिक्षु ने कहा, "रुकने में मुझे अड़चन नहीं है,... ' मैं बुद्ध का शिष्य हूं। बुद्ध गांव के बाहर ही हैं, अभी पूछकर आ जाता हूं।"
वेश्या थोड़ी चिंतित हुई। कैसा भिक्षु ! इतनी जल्दी राजी हुआ?
वह भिक्षु गया। उसने बुद्ध से कहा कि,
"सुनिए, एक आमंत्रण मिला है, एक वेश्या का। वर्षाकाल उसके घर रहने के लिए। जो आज्ञा आपकी हो, वैसा करूं।"
बुद्ध ने कहा,
"तू जा सकता है। निमंत्रण को ठुकराना उचित नहीं।"
सनसनी फैल गई भिक्षुओं में। दस हजार भिक्षु थे, ईष्या से भर गए। कई को तो, लगा कि सौभाग्यशाली है। तो वेश्या ने निमंत्रण दिया वर्षाकाल का। और हद्द हो गई बुद्ध की भी कि उसे स्वीकार भी कर लिया और आज्ञा भी दे दी।
एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि
"रुकें ! इससे गलत नियम प्रचलित हो जाएगा। भिक्षुओं को वेश्याएं निमंत्रित करने लगें, और भिक्षु उनके घर रहने लगें, भ्रष्टाचार फैलेगा। यह नहीं होना चाहिए।"
बुद्ध ने कहा,
"अगर तुझे निमंत्रण मिले, और तू ठहरे तो भ्रष्टाचार फैलेगा। तू वैश्या के घर ठहरने को कितना आतुर मालूम होता है! अगर तुझे निमंत्रण मिले और तू मुझे पूछने आए गा....? पहली तो बात तू पूछने आएगा ही नहीं, क्योंकि तू डरेगा। यह पूछने आया ही इसीलिए है कि उसे कोई भय नहीं है।"
वह भिक्षु चला गया। वह तीन महीने वेश्या के घर रहा। बड़ी-बड़ी कहानियां चलीं, बड़ी खबरें आईं, अफवाहें आईं कि भ्रष्ट हो गया। वह तो बरबाद हो गया, बैठकर संगीत सुनता है। पता नहीं खाने-पीने का भी नियम रखा है कि नहीं ! दूसरे भिक्षु भीतर तो जा नहीं सकते थे, लेकिन आसपास चक्कर जरूर लगाते रहते थे। और कई तरह की खबरें लाते थे।
लेकिन बुद्ध सुनते रहे और उन्होंने कोई वक्तव्य न दिया।
तीन महीने बाद जब भिक्षु आया, तो वह वेश्या उसके पीछे आई। उस वेश्या ने कहा :
"मेरे धन्यभाग कि आपने इस भिक्षु को मेरे घर रुकने की आज्ञा दी। मैंने सब तरह की कोशिश की इसे भ्रष्ट करने की, क्योंकि वह मेरा अहंकार था।जब वेश्या भ्रष्ट कर पाती है, तब जीत जाती है। वह मेरा अहंकार था कि यह भिक्षु भ्रष्ट हो जाये l लेकिन इसके सामने मैं हार गई। मेरा सौंदर्य व्यर्थ, मेरा शरीर व्यर्थ, मेरा संगीत व्यर्थ, मेरा नृत्य, इसे कुछ भी न लुभा पाया और तीन महीने में, मैं इसके लोभ में पड़ गई। मेरे मन में यह सवाल उठने लगा, क्या है इसके पास ? कौन-सी संपदा है, जिसके कारण मैं इसे कुछ नहीं मालूम पड़ती हूं ? अब मैं भी उसी की खोज करना चाहती हूं lजब तक वह संपदा मुझे न मिल जाए, तब तक मैं सब कुछ करने को राजी हूं, सब छोड़ने को राजी हूं। अब जीने में कोई अर्थ नहीं, जब तक मैं इस अवस्था को न पा लूं, जिसमें यह भिक्षु है।"
वेश्या भिक्षुणी हो गयी.
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